सैर की हम ने जो कल महफ़िल-ए-ख़ामोशाँ की
न तो बेगाना ही बोला न पुकारा अपना
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चमन में ग़ुंचा मुँह खोले है जब कुछ दिल की कहने को
बा'द-ए-मजनूँ क्यूँ न हूँ मैं कार-फ़रमा-ए-जुनूँ
बयाबाँ मर्ग है मजनून-ए-ख़ाक-आलूदा-तन किस का
कर के आज़ाद हर इक शहपर-ए-बुलबुल कतरा
हार बना इन पारा-ए-दिल का माँग न गजरा फूलों का
बजाए आब मय-ए-नर्गिसी पिला मुझ को
की है उस्ताद-ए-अज़ल ने ये रुबाई मौज़ूँ
सुपर रखता हूँ मैं भी आफ़्ताबी साग़र-ए-मय की
बोसा-ए-ख़ाल-ए-लब-ए-जानाँ की कैफ़िय्यत न पूछ
न ज़िक्र-ए-आश्ना ने क़िस्सा-ए-बेगाना रखते हैं
जो रक़ीबों ने कहा तू वही बद-ज़न समझा
लगा जब अक्स-ए-अबरू देखने दिलदार पानी में