बजाए आब मय-ए-नर्गिसी पिला मुझ को
ग़िज़ा कुछ और न बादाम के सिवा ठहरा
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दिल जल्वा-गाह-ए-सूरत-ए-जानाना हो गया
सर-बुलंदी को यहाँ दिल ने न चाहा मुनइम
चमन में देखते ही पड़ गई कुछ ओस ग़ुंचों पर
बोसा-ए-ख़ाल-ए-लब-ए-जानाँ की कैफ़िय्यत न पूछ
देख तू यार-ए-बादा-कश मैं ने भी काम क्या किया
पिस्ताँ को तेरे देख के मिट जाए फिर हुबाब
सरज़मीं ज़ुल्फ़ की जागीर में थी इस दिल की
सौ बार बोसा-ए-लब-ए-शीरीं वो दे तो लूँ
याँ से देंगे न तुम को जाने आज
लगाई किस बुत-ए-मय-नोश ने है ताक उस पर
हम वो फ़लक हैं अहल-ए-तवक्कुल कि मिस्ल-ए-माह
ख़ाल-ए-मश्शाता बना काजल का चश्म-ए-यार पर