सौ बार बोसा-ए-लब-ए-शीरीं वो दे तो लूँ
खाने से दिल मिरा अभी शक्कर नहीं फिरा
Parveen Shakir
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Habib Jalib
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मय-कशी का है ये शौक़ उस को कि आईने में
रेख़्ता के क़स्र की बुनियाद उठाई ऐ 'नसीर'
इक आबला था सो भी गया ख़ार-ए-ग़म से फट
तिश्नगी ख़ाक बुझे अश्क की तुग़्यानी से
ग़ुरूर-ए-हुस्न न कर जज़्बा-ए-ज़ुलेख़ा देख
बे-सबब हाथ कटारी को लगाना क्या था
दिल इश्क़-ए-ख़ुश-क़दाँ में जो ख़्वाहान-ए-नाला था
ग़रज़ न फ़ुर्क़त में कुफ़्र से थी न काम इस्लाम से रहा था
फ़ुर्सत एक दम की है जूँ हबाब पानी याँ
वस्ल की रात हम-नशीं क्यूँकि कटी न पूछ कुछ
तू ज़िद से शब-ए-वस्ल न आया तो हुआ क्या
इक क़ाफ़िला है बिन तिरे हम-राह सफ़र में