तिश्नगी ख़ाक बुझे अश्क की तुग़्यानी से
ऐन बरसात में बिगड़े है मज़ा पानी का
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शौक़-ए-कुश्तन है उसे ज़ौक़-ए-शहादत है मुझे
इसी मज़मून से मालूम उस की सर्द-मेहरी है
'नसीर' उस ज़ुल्फ़ की ये कज-अदाई कोई जाती है
शब जो रुख़-ए-पुर-ख़ाल से वो बुर्के को उतारे सोते हैं
दिल को किस सूरत से कीजे चश्म-ए-दिलबर से जुदा
ये अब्र है या फ़ील-ए-सियह-मस्त है साक़ी
ख़याल-ए-ज़ुल्फ़-ए-दूता में 'नसीर' पीटा कर
न क्यूँ कि अश्क-ए-मुसलसल हो रहनुमा दिल का
जब तलक चर्ब न जूँ शम्-ए-ज़बाँ कीजिएगा
पिस्ताँ को तेरे देख के मिट जाए फिर हुबाब
क्यूँ मय के पीने से करूँ इंकार नासेहा