सरज़मीं ज़ुल्फ़ की जागीर में थी इस दिल की
वर्ना इक दाम का फिर उस में ठिकाना क्या था
Anwar Masood
Parveen Shakir
Allama Iqbal
Ahmad Faraz
Faiz Ahmad Faiz
Mir Taqi Mir
Mohsin Naqvi
Habib Jalib
Javed Akhtar
Wasi Shah
Rahat Indori
Jaun Eliya
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(469) Peoples Rate This
मुल्ला की दौड़ जैसे है मस्जिद तलक 'नसीर'
कुछ सरगुज़िश्त कह न सके रू-ब-रू क़लम
ये निगल जाएगी इक दिन तिरी चौड़ाई चर्ख़
ख़ुदा के वास्ते चेहरे से टुक नक़ाब उठा
जिस्म उस के ग़म में ज़र्द-अज़-ना-तवानी हो गया
ग़रज़ न फ़ुर्क़त में कुफ़्र से थी न काम इस्लाम से रहा था
वक़्त-ए-नमाज़ है उन का क़ामत-गाह-ए-ख़दंग-ओ-गाह-ए-कमाँ
रुवाक़-ए-चशम में मत रह कि है मकान-ए-नुज़ूल
ख़ानदान-ए-क़ैस का मैं तो सदा से पीर हूँ
वस्ल की रात हम-नशीं क्यूँकि कटी न पूछ कुछ
शराब लाओ कबाब लाओ हमारे दिल को न अब घटाओ
आँखों से तुझ को याद मैं करता हूँ रोज़-ओ-शब