ये निगल जाएगी इक दिन तिरी चौड़ाई चर्ख़
गर कभू तुझ से ज़मीं हम ने भी नपवाई चर्ख़
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'नसीर' उस ज़ुल्फ़ की ये कज-अदाई कोई जाती है
वस्ल की रात हम-नशीं क्यूँकि कटी न पूछ कुछ
उस काकुल-ए-पुर-ख़म का ख़लल जाए तो अच्छा
जब कि ले ज़ुल्फ़ तिरी मुसहफ़-ए-रुख़ का बोसा
ज़ुल्फ़ छुटती तिरे रुख़ पर तो दिल अपना फिरता
कम नहीं है अफ़सर-शाही से कुछ ताज-ए-गदा
ग़ुरूर-ए-हुस्न न कर जज़्बा-ए-ज़ुलेख़ा देख
देख तू यार-ए-बादा-कश! मैं ने भी काम क्या किया
उधर अब्र ले चश्म-ए-नम को चला
सरज़मीं ज़ुल्फ़ की जागीर में थी इस दिल की
न क्यूँ कि अश्क-ए-मुसलसल हो रहनुमा दिल का
मता-ए-दिल बहुत अर्ज़ां है क्यूँ नहीं लेते