जब कि ले ज़ुल्फ़ तिरी मुसहफ़-ए-रुख़ का बोसा
फिर यहाँ फ़र्क़ हो हिन्दू ओ मुसलमान में क्या
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ले गया दे एक बोसा अक़्ल ओ दीन ओ दिल वो शोख़
दिल को किस सूरत से कीजे चश्म-ए-दिलबर से जुदा
सदा है इस आह-ओ-चश्म-ए-तर से फ़लक पे बिजली ज़मीं पे बाराँ
हम हैं और मजनूँ अज़ल से ख़ाना-पर्वर्द-ए-जुनूँ
हम दिखाएँगे तमाशा तुझ को फिर सर्व-ए-चमन
क़दम न रख मिरी चश्म-ए-पुर-आब के घर में
न हाथ रख मिरे सीने पे दिल नहीं इस में
सरज़मीन-ए-ज़ुल्फ़ में क्या दिल ठिकाने लग गया
हाथों को उठा जान से आख़िर को रहूँगा
दिला उस की काकुल से रख जम्अ ख़ातिर
ये दाग़ नहीं तन पर मैं देखने को तेरे
न दिखाइयो हिज्र का दर्द-ओ-अलम तुझे देता हूँ चर्ख़-ए-ख़ुदा की क़सम