ले गया दे एक बोसा अक़्ल ओ दीन ओ दिल वो शोख़
क्या हिसाब अब कीजे कुछ अपना ही फ़ाज़िल रह गया
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दूद-ए-आह-ए-जिगरी काम न आया यारो
रख क़दम होश्यार हो कर इश्क़ की मंज़िल में आह
ख़ुदा के वास्ते चेहरे से टुक नक़ाब उठा
न क्यूँ कि अश्क-ए-मुसलसल हो रहनुमा दिल का
कम नहीं है अफ़सर-शाही से कुछ ताज-ए-गदा
रुवाक़-ए-चशम में मत रह कि है मकान-ए-नुज़ूल
चश्म में कब अश्क भर लाते हैं हम
हो गुफ़्तुगू हमारी और अब उस की क्यूँकि आह
'नसीर' अब हम को क्या है क़िस्सा-ए-कौनैन से मतलब
छोड़ा न तुझे ने राम क्या ये भी न हुआ वो भी न हुआ
बा'द-ए-मजनूँ क्यूँ न हूँ मैं कार-फ़रमा-ए-जुनूँ
उस काकुल-ए-पुर-ख़म का ख़लल जाए तो अच्छा