रुवाक़-ए-चशम में मत रह कि है मकान-ए-नुज़ूल
तिरे तो वास्ते ये क़स्र है बना दिल का
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कम नहीं है अफ़सर-शाही से कुछ ताज-ए-गदा
जब तलक चर्ब न जूँ शम्-ए-ज़बाँ कीजिएगा
गो सियह-बख़्त हूँ पर यार लुभा लेता है
सरज़मीन-ए-ज़ुल्फ़ में क्या दिल ठिकाने लग गया
देख तू यार-ए-बादा-कश मैं ने भी काम क्या किया
इक पल में झड़ी अब्र-ए-तुनक-माया की शेख़ी
चमन में देखते ही पड़ गई कुछ ओस ग़ुंचों पर
न दिखाइयो हिज्र का दर्द-ओ-अलम तुझे देता हूँ चर्ख़-ए-ख़ुदा की क़सम
ग़रज़ न फ़ुर्क़त में कुफ़्र से थी न काम इस्लाम से रहा था
ज़ुल्फ़ का क्या उस की चटका लग गया
कुछ सरगुज़िश्त कह न सके रू-ब-रू क़लम
दिल को किस सूरत से कीजे चश्म-ए-दिलबर से जुदा