बना कर मन को मनका और रग-ए-तन के तईं रिश्ता
उठा कर संग से फिर हम ने चकनाचूर की तस्बीह
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उस काकुल-ए-पुर-ख़म का ख़लल जाए तो अच्छा
क्यूँ न कहें बशर को हम आतिश-ओ-आब ओ ख़ाक-ओ-बाद
उठती घटा है किस तरह बोले वो ज़ुल्फ़ उठा कि यूँ
निकहत-ए-गुल हैं या सबा हैं हम
सौ बार बोसा-ए-लब-ए-शीरीं वो दे तो लूँ
इसी मज़मून से मालूम उस की सर्द-मेहरी है
जिस्म उस के ग़म में ज़र्द-अज़-ना-तवानी हो गया
जो गुज़रे है बर आशिक़-ए-कामिल नहीं मालूम
वस्ल की रात हम-नशीं क्यूँकि कटी न पूछ कुछ
लगा जब अक्स-ए-अबरू देखने दिलदार पानी में
मेरी तुर्बत पर चढ़ाने ढूँडता है किस के फूल
ज़ुल्फ़ छुटती तिरे रुख़ पर तो दिल अपना फिरता