बसान-ए-आइना हम ने तो चश्म वा कर ली
जिधर निगाह की साफ़ उस को बरमला देखा
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बोसा-ए-ख़ाल-ए-लब-ए-जानाँ की कैफ़िय्यत न पूछ
शौक़-ए-कुश्तन है उसे ज़ौक़-ए-शहादत है मुझे
क़दम न रख मिरी चश्म-ए-पुर-आब के घर में
दिखा दो गर माँग अपनी शब को तो हश्र बरपा हो कहकशाँ पर
आईना ले के देख ज़रा अपने हुस्न को
ख़ाल-ए-मश्शाता बना काजल का चश्म-ए-यार पर
वाँ कमर बाँधे हैं मिज़्गाँ क़त्ल पर दोनों तरफ़
ग़रज़ न फ़ुर्क़त में कुफ़्र से थी न काम इस्लाम से रहा था
ये चर्ख़-ए-नीलगूँ इक ख़ाना-ए-पुर-दूद है यारो
जब तलक चर्ब न जूँ शम्-ए-ज़बाँ कीजिएगा
सौ बार बोसा-ए-लब-ए-शीरीं वो दे तो लूँ
दिला उस की काकुल से रख जम्अ ख़ातिर