आईना ले के देख ज़रा अपने हुस्न को
आएगी ये बहार-ए-गुलिस्ताँ ख़िज़ाँ में याद
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तिरे है ज़ुल्फ़ ओ रुख़ की दीद सुब्ह-ओ-शाम आशिक़ का
तेरे ख़याल-ए-नाफ़ से चक्कर में किया है दिल
जो गुज़रे है बर आशिक़-ए-कामिल नहीं मालूम
हम फड़क कर तोड़ते सारी क़फ़स की तीलियाँ
तू ज़िद से शब-ए-वस्ल न आया तो हुआ क्या
हो गुफ़्तुगू हमारी और अब उस की क्यूँकि आह
तलब में बोसे की क्या है हुज्जत सवाल दीगर जवाब दीगर
बोसा-ए-ख़ाल-ए-लब-ए-जानाँ की कैफ़िय्यत न पूछ
तू तो इक परचा भी वाँ से नामा-बर लाया न आह
अब्र-ए-नैसाँ की भी झड़ जाएगी पल में शेख़ी
दिल इश्क़-ए-ख़ुश-क़दाँ में जो ख़्वाहान-ए-नाला था
न क्यूँ कि अश्क-ए-मुसलसल हो रहनुमा दिल का