अब्र-ए-नैसाँ की भी झड़ जाएगी पल में शेख़ी
दीदा-ए-तर को अगर अश्क-फ़िशाँ कीजिएगा
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सुब्ह-ए-गुलशन में हो गर वो गुल-ए-ख़ंदाँ पैदा
सरज़मीन-ए-ज़ुल्फ़ में क्या दिल ठिकाने लग गया
पामाल-ए-राह-ए-इश्क़ हैं ख़िल्क़त की खा ठोकर भी हम
मैं उस की चश्म का बीमार-ए-ना-तवाँ हूँ तबीब
उस काकुल-ए-पुर-ख़म का ख़लल जाए तो अच्छा
गर्दिश-ए-चर्ख़ नहीं कम भी हंडोले से कि महर
शराब लाओ कबाब लाओ हमारे दिल को न अब घटाओ
जिस्म उस के ग़म में ज़र्द-अज़-ना-तवानी हो गया
उठती घटा है किस तरह बोले वो ज़ुल्फ़ उठा कि यूँ
लगा जब अक्स-ए-अबरू देखने दिलदार पानी में
आमद-ओ-शुद कूचे में हम उस के क्यूँ न करें मानिंद-ए-नफ़स
शैख़-साहिब की नमाज़-ए-सहरी को है सलाम