सर-बुलंदी को यहाँ दिल ने न चाहा मुनइम
वर्ना ये ख़ेमा-ए-अफ़्लाक पुराना क्या था
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सुब्ह-ए-गुलशन में हो गर वो गुल-ए-ख़ंदाँ पैदा
आता है तो आ वादा-फ़रामोश वगर्ना
तलब में बोसे की क्या है हुज्जत सवाल दीगर जवाब दीगर
आँखों से तुझ को याद मैं करता हूँ रोज़-ओ-शब
मुल्ला की दौड़ जैसे है मस्जिद तलक 'नसीर'
इश्क़ ही दोनों तरफ़ जल्वा-ए-दिलदार हुआ
ग़ज़ल इस बहर में क्या तुम ने लिखी है ये 'नसीर'
तू तो इक परचा भी वाँ से नामा-बर लाया न आह
ख़याल-ए-नाफ़-ए-बुताँ से हो क्यूँ कि दिल जाँ-बर
हो गुफ़्तुगू हमारी और अब उस की क्यूँकि आह
दिखा दो गर माँग अपनी शब को तो हश्र बरपा हो कहकशाँ पर
लगा जब अक्स-ए-अबरू देखने दिलदार पानी में