इश्क़ ही दोनों तरफ़ जल्वा-ए-दिलदार हुआ
वर्ना इस हीर का राँझे को रिझाना क्या था
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लगा न दिल को तू अपने किसी से देख 'नसीर'
याँ से देंगे न तुम को जाने आज
मैं ने बिठला के जो पास उस को खिलाया बीड़ा
सर-ए-मिज़्गाँ ये नाले अब भी आँसू को तरसते हैं
वस्ल की रात हम-नशीं क्यूँकि कटी न पूछ कुछ
न क्यूँ कि अश्क-ए-मुसलसल हो रहनुमा दिल का
हम वो फ़लक हैं अहल-ए-तवक्कुल कि मिस्ल-ए-माह
इक पल में झड़ी अब्र-ए-तुनक-माया की शेख़ी
शमीम-ए-ज़ुल्फ़-ए-मुअम्बर जो रू-ए-यार से लूँ
तू ज़िद से शब-ए-वस्ल न आया तो हुआ क्या
ये निगल जाएगी इक दिन तिरी चौड़ाई चर्ख़
चमन में ग़ुंचा मुँह खोले है जब कुछ दिल की कहने को