हम वो फ़लक हैं अहल-ए-तवक्कुल कि मिस्ल-ए-माह
रखते नहीं हैं नान-ए-शबीना बरा-ए-सुब्ह
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आमद-ओ-शुद कूचे में हम उस के क्यूँ न करें मानिंद-ए-नफ़स
क्यूँ मय के पीने से करूँ इंकार नासेहा
हुआ अश्क-ए-गुलगूँ बहार-ए-गरेबाँ
कोई ये शैख़ से पूछे कि बंद कर आँखें
पामाल-ए-राह-ए-इश्क़ हैं ख़िल्क़त की खा ठोकर भी हम
सौ बार बोसा-ए-लब-ए-शीरीं वो दे तो लूँ
ग़र्क़ न कर दिखला कर दिल को कान का बाला ज़ुल्फ़ का हल्क़ा
इक क़ाफ़िला है बिन तिरे हम-राह सफ़र में
काबे से ग़रज़ उस को न बुत-ख़ाने से मतलब
याँ से देंगे न तुम को जाने आज
रख क़दम होश्यार हो कर इश्क़ की मंज़िल में आह
जो ऐन वस्ल में आराम से नहीं वाक़िफ़