ब'अद-ए-मजनूँ क्यूँ न हूँ मैं कार-फ़रमा-ए-जुनूँ
इश्क़ की सरकार से मलबूस-ए-रुस्वाई मिला
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तिरे है ज़ुल्फ़ ओ रुख़ की दीद सुब्ह-ओ-शाम आशिक़ का
आता है तो आ वादा-फ़रामोश वगर्ना
सरज़मीन-ए-ज़ुल्फ़ में क्या दिल ठिकाने लग गया
मेरे नाले के न क्यूँ हो चर्ख़-ए-अख़्ज़र ज़ेर-ए-पा
रुवाक़-ए-चशम में मत रह कि है मकान-ए-नुज़ूल
आईना ले के देख ज़रा अपने हुस्न को
इक आबला था सो भी गया ख़ार-ए-ग़म से फट
याँ से देंगे न तुम को जाने आज
पामाल-ए-राह-ए-इश्क़ हैं ख़िल्क़त की खा ठोकर भी हम
उठती घटा है किस तरह बोले वो ज़ुल्फ़ उठा कि यूँ
कुछ सरगुज़िश्त कह न सके रू-ब-रू क़लम