की है उस्ताद-ए-अज़ल ने ये रुबाई मौज़ूँ
चार उंसुर से खुले मअनी-ए-पिन्हाँ हम को
Habib Jalib
Gulzar
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Rahat Indori
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छोड़ा न तुझे ने राम क्या ये भी न हुआ वो भी न हुआ
लगा जब अक्स-ए-अबरू देखने दिलदार पानी में
बोसा-ए-ख़ाल-ए-लब-ए-जानाँ की कैफ़िय्यत न पूछ
हरम को शैख़ मत जा है बुत-ए-दिल-ख़्वाह सूरत में
हम हैं और मजनूँ अज़ल से ख़ाना-पर्वर्द-ए-जुनूँ
जो गुज़रे है बर आशिक़-ए-कामिल नहीं मालूम
शब जो रुख़-ए-पुर-ख़ाल से वो बुर्के को उतारे सोते हैं
उधर अब्र ले चश्म-ए-नम को चला
आ के सलासिल ऐ जुनूँ क्यूँ न क़दम ले ब'अद-ए-क़ैस
हो गुफ़्तुगू हमारी और अब उस की क्यूँकि आह
जूँ मौज हाथ मारिए क्या बहर-ए-इश्क़ में