तार-ए-नफ़स उलझ गया मेरे गुलू में आ के जब
नाख़ुन-ए-तेग़-ए-यार को मैं ने गिरह-कुशा किया
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कुछ सरगुज़िश्त कह न सके रू-ब-रू क़लम
दिल इश्क़-ए-ख़ुश-क़दाँ में जो ख़्वाहान-ए-नाला था
इसी मज़मून से मालूम उस की सर्द-मेहरी है
ये चर्ख़-ए-नीलगूँ इक ख़ाना-ए-पुर-दूद है यारो
उस काकुल-ए-पुर-ख़म का ख़लल जाए तो अच्छा
फ़ुर्सत एक दम की है जूँ हबाब पानी याँ
ख़ाल-ए-मश्शाता बना काजल का चश्म-ए-यार पर
मत पूछ वारदात-ए-शब-ए-हिज्र ऐ 'नसीर'
यारो नहीं इतना मुझे क़ातिल ने सताया
काबे से ग़रज़ उस को न बुत-ख़ाने से मतलब
तू ज़िद से शब-ए-वस्ल न आया तो हुआ क्या
पिस्ताँ को तेरे देख के मिट जाए फिर हुबाब