तिरे ही नाम की सिमरण है मुझ को और तस्बीह
तू ही है विर्द हर इक सुब्ह-ओ-शाम आशिक़ का
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जब तलक चर्ब न जूँ शम्-ए-ज़बाँ कीजिएगा
ख़ाल-ए-मश्शाता बना काजल का चश्म-ए-यार पर
मैं उस की चश्म का बीमार-ए-ना-तवाँ हूँ तबीब
ये चर्ख़-ए-नीलगूँ इक ख़ाना-ए-पुर-दूद है यारो
सरज़मीन-ए-ज़ुल्फ़ में क्या दिल ठिकाने लग गया
लब-ए-दरिया पे देख आ कर तमाशा आज होली का
न हाथ रख मिरे सीने पे दिल नहीं इस में
तेरे ख़याल-ए-नाफ़ से चक्कर में किया है दिल
दिला उस की काकुल से रख जम्अ ख़ातिर
तार-ए-नफ़स उलझ गया मेरे गुलू में आ के जब
पामाल-ए-राह-ए-इश्क़ हैं ख़िल्क़त की खा ठोकर भी हम
क़दम न रख मिरी चश्म-ए-पुर-आब के घर में