एक दिन पूछा न 'हातिम' को कभू उस ने कि दोस्त
कब से तू बीमार है और क्या तुझे आज़ार है
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मुहय्या सब है अब अस्बाब-ए-होली
कलेजा मुँह को आया और नफ़स करने लगा तंगी
नमक-ए-हुस्न का सुनता हूँ तिरे जूँ जूँ शोर
तुम कि बैठे हुए इक आफ़त हो
मज़रा-ए-दुनिया में दाना है तो डर कर हाथ डाल
शहर में चर्चा है अब तेरी निगाह-ए-तेज़ का
बस नहीं चलता जो उस दम उन के ऊपर गर पड़े
किस सितमगर का गुनाहगार हूँ अल्लाह अल्लाह
गुलशन-ए-दहर में सौ रंग हैं 'हातिम' उस के
हम छनालों की छोड़ दी यारी
नज़र में बंद करे है तू एक आलम को
मैं ज़ात का उस की आश्ना हूँ