गुलशन-ए-दहर में सौ रंग हैं 'हातिम' उस के
वो कहीं गुल है कहीं बू है कहीं बूटा है
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जो मिरे हम-अस्र हम-सोहबत थे सो सब मर गए
ने शिकवा-मंद दिल से न अज़-दस्त-दीदा हूँ
अगर रोते न हम तो देखते तुम
इस क़दर बस-कि रोज़ मिलने से
रोना वही जो ख़ौफ़-ए-इलाही से रोइए
आब-ए-हयात जा के किसू ने पिया तो क्या
जो कोई कि यार-ओ-आश्ना है
हमारी अक़्ल-ए-बे-तदबीर पर तदबीर हँसती है
मुद्दत से ख़्वाब में भी नहीं नींद का ख़याल
इश्क़ उस का आन कर यक-बारगी सब ले गया
जिस को देखा सो यहाँ दुश्मन-ए-जाँ है अपना
सुनो हिन्दू मुसलमानो कि फ़ैज़-ए-इश्क़ से 'हातिम'