सुनो हिन्दू मुसलमानो कि फ़ैज़-ए-इश्क़ से 'हातिम'
हुआ आज़ाद क़ैद-ए-मज़हब-ओ-मशरब से अब फ़ारिग़
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ख़ूबान-ए-जहाँ हों जिस से तस्ख़ीर
कहीं वो सूरत-ए-ख़ूबाँ हुआ है
जब आप से ही गुज़र गए हम
सौ बार तार तार किया तो भी अब तलक
बे तिरे जान न थी जान मिरी जान के बीच
मज़हर-ए-हक़ कब नज़र आता है इन शैख़ों के तईं
इश्क़ है दारुश्शिफ़ा और दर्द है उस का तबीब
तिरे रुख़्सार से बे-तरह लिपटी जाए है ज़ालिम
आब-ए-हयात जा के किसू ने पिया तो क्या
मोतकिफ़ हो शैख़ अपने दिल में मस्जिद से निकल
कोई है सुर्ख़-पोश कोई ज़र्द-पोश है
तन्हाई से आती नहीं दिन रात मुझे नींद