ख़ूबान-ए-जहाँ हों जिस से तस्ख़ीर
ऐसा कोई हम ने हुनर न देखा
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कभू तू रो तो उस को ख़ाक ऊपर जा के ऐ लैला
'हातिम' उस ज़ुल्फ़ की तरफ़ मत देख
कशिश से दिल की उस अबरू कमाँ को हम रखा बहला
क्या बड़ा ऐब है इस जामा-ए-उर्यानी में
सच अगर पूछो तो ना-पैदा है यक-रू आश्ना
रिश्ता-ए-उमर-दराज़ अपना मैं कोताह करूँ
ऐसी हवा बही कि है चारों तरफ़ फ़साद
इश्क़ ने चुटकी सी ली फिर आ के मेरी जाँ के बीच
फड़कूँ तो सर फटे है न फड़कूँ तो जी घटे
मुद्दत से ख़्वाब में भी नहीं नींद का ख़याल
मैं जितना ढूँढता हूँ उस को उतना ही नहीं पाता
इश्क़-बाज़ी बुल-हवस बाज़ी न जान