क्या बड़ा ऐब है इस जामा-ए-उर्यानी में
चाक करने को कभी इस में गरेबाँ न हुआ
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क्या सताते हो रहो बंदा-नवाज़
मौसम-ए-गुल का मगर क़ाफ़िला जाता है कि आज
तेरे आने से यू ख़ुशी है दिल
अज़ल से दिल है सज्दा में तिरे अबरू के मस्जिद में
मैं उस की चश्म से ऐसा गिरा हूँ
इलाही तुझ से अब कहता है 'हातिम' इस ज़माने में
मज़हर-ए-हक़ कब नज़र आता है इन शैख़ों के तईं
खेल सब छोड़ खेल अपना खेल
मिरी बातों से अब आज़ुर्दा न होना साक़ी
जब तक कि गरेबान में यक तार रहेगा
रखे है शीशा मिरा संग साथ रब्त-ए-क़दीम
हाजत चराग़ की है कब अंजुमन में दिल के