मौसम-ए-गुल का मगर क़ाफ़िला जाता है कि आज
सारे ग़ुंचों से जो आवाज़-ए-जरस आती है
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आ कर तिरी गली में क़दम-बोसी के लिए
देखा किसी ने हम से ज़माने ने क्या किया
रुख़्सार के अरक़ का तिरे भाव देख कर
मुद्दत से ख़्वाब में भी नहीं नींद का ख़याल
जब से तेरी नज़र पड़ी है झलक
तू जो मूसा हो तो उस का हर तरफ़ दीदार है
शहर में चर्चा है अब तेरी निगाह-ए-तेज़ का
क्या हुआ गर शैख़ यारो हाजी-उल-हरमैन है
आगे क्या तुम सा जहाँ में कोई महबूब न था
यूँ न हो यूँ हो यूँ हुआ सो क्यूँ
ख़ाकसारों का दिल ख़ज़ीना है
ख़ुदा के वास्ते उस से न बोलो