जब से तेरी नज़र पड़ी है झलक
तब से लगती नहीं पलक से पलक
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न कुछ सितम से तिरे आह आह करता हूँ
तू ने ग़ारत किया घर बैठे घर इक आलम का
बे तिरे जान न थी जान मिरी जान के बीच
ने शिकवा-मंद दिल से न अज़-दस्त-दीदा हूँ
किसू मशरब में और मज़हब में
दिल को मारा चश्म ने अबरू की तलवारों से आज
हक़ से मिलना गेरवे कपड़ों उपर मौक़ूफ़ नईं
है कभू दिल में कभू जी में कभू आँखों के बीच
दहन है तंग शकर और शकर है तिरा है कलाम
फ़िल-हक़ीक़त कोई नहीं मरता
मैं ज़ात का उस की आश्ना हूँ
ने काबा की हवस न हवा-ए-कुनिश्त है