ने काबा की हवस न हवा-ए-कुनिश्त है
देखा तो दोनों जाए वही संग-ओ-ख़िश्त है
Faiz Ahmad Faiz
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अगर रोते न हम तो देखते तुम
इश्क़ ने किश्वर-ए-दिल लूटा है
तिरी निगह से गए खुल किवाड़ छाती के
होली
तू सुब्ह-दम न नहा बे-हिजाब दरिया में
असीरों का नहीं कुछ शोर-ओ-ग़ुल ये आज ज़िंदाँ में
गज़क की इस क़दर ऐ मस्त तुझ को क्या शिताबी है
न कुछ सितम से तिरे आह आह करता हूँ
देखने से तिरे जी पाता हूँ
रिश्ता-ए-उमर-दराज़ अपना मैं कोताह करूँ
मेरे आँसू के पोछने को मियाँ
मुद्दत हुई पलक से पलक आश्ना नहीं