मुद्दत हुई पलक से पलक आश्ना नहीं
क्या इस से अब ज़ियादा करे इंतिज़ार चश्म
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क्या बड़ा ऐब है इस जामा-ए-उर्यानी में
इश्क़-बाज़ी बुल-हवस बाज़ी न जान
ख़ूबान-ए-जहाँ हों जिस से तस्ख़ीर
तब्अ तेरी अजब तमाशा है
न कुछ सितम से तिरे आह आह करता हूँ
तू सुब्ह-दम न नहा बे-हिजाब दरिया में
ज़ाहिदो उठ जाओ मज्लिस से कि आज
देखा किसी ने हम से ज़माने ने क्या किया
इस दौर के असर का जो पूछो बयाँ नहीं
दिल उस की तार-ए-ज़ुल्फ़ के बल में उलझ गया
बाज़ार से आए हाथ ख़ाली
जिस कूँ पी का ख़याल होता है