दिल उस की तार-ए-ज़ुल्फ़ के बल में उलझ गया
सुलझेगा किस तरह से ये बिस्तार है ग़ज़ब
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जामा उर्यानी का क़ामत पर मिरी आया है रास्त
आशिक़ का जहाँ में घर न देखा
मस्तों का दिल है शीशा और संग-दिल है साक़ी
जब पुकारे है वो अबे ओ होत
जिस के मुँह की उतर गई लोई
आब-ए-हयात जा के किसू ने पिया तो क्या
जिस को देखा सो यहाँ दुश्मन-ए-जाँ है अपना
दहन है तंग शकर और शकर है तिरा है कलाम
मैं ज़ात का उस की आश्ना हूँ
कहो तो किस तरह आवे वहाँ नींद
बे तिरे जान न थी जान मिरी जान के बीच
इश्क़ है दारुश्शिफ़ा और दर्द है उस का तबीब