जामा उर्यानी का क़ामत पर मिरी आया है रास्त
अब मुझे नाम-ए-लिबास-ए-आरियत से नंग है
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देखते सज्दे में आता है जो करता है निगाह
फ़िक्र में मुफ़्त उम्र खोना है
इश्क़ है दारुश्शिफ़ा और दर्द है उस का तबीब
इस क़दर की सर्फ़ तस्ख़ीर-ए-परी-रूयाँ में उम्र
जिस तरफ़ को मैं गया रोता हुआ
क्या सताते हो रहो बंदा-नवाज़
न कुछ सितम से तिरे आह आह करता हूँ
जो कोई कि यार-ओ-आश्ना है
जब से तुम्हारी आँखें आलम को भाइयाँ हैं
आ कर तिरी गली में क़दम-बोसी के लिए
आई ईद व दिल में नहीं कुछ हवा-ए-ईद
सब मुख़ालिफ़ जब किनारे हो गए