दिल था बग़ल में मुद्दई ख़ूब हुआ जो ग़म हुआ
जाने से उस की इन दिनों हम को बड़ा फ़राग़ है
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बुल-हवस गो करें तेरे लब-ए-शीरीं पर हुजूम
इतना मैं इंतिज़ार किया उस की राह में
अब की चमन में गुल का ने नाम ओ ने निशाँ है
आशिक़ का जहाँ में घर न देखा
कभू जो शैख़ दिखाऊँ मैं अपने बुत के तईं
जुम्बिश-ए-दिल नहीं बेजा तू किधर भूला है
मुझे क्या देख कर तू तक रहा है
तू देख उसे सब जा आँखों के उठा पर्दे
न कुछ सितम से तिरे आह आह करता हूँ
सुनो हिन्दू मुसलमानो कि फ़ैज़-ए-इश्क़ से 'हातिम'
क्या उस की सिफ़त में गुफ़्तुगू है
कशिश से दिल की उस अबरू कमाँ को हम रखा बहला