कभू जो शैख़ दिखाऊँ मैं अपने बुत के तईं
ब-रब्ब-ए-क'अबा तुझे हसरत-ए-हरम न रहे
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साहिबान-ए-क़स्र को मिलती नहीं है ब'अद-ए-मर्ग
हमारी अक़्ल-ए-बे-तदबीर पर तदबीर हँसती है
अब की चमन में गुल का ने नाम ओ ने निशाँ है
कभू बीमार सुन कर वो अयादत को तो आता था
यूँ न हो यूँ हो यूँ हुआ सो क्यूँ
क्या बड़ा ऐब है इस जामा-ए-उर्यानी में
इस की क़ुदरत की दीद करता हूँ
चला जाता था 'हातिम' आज कुछ वाही-तबाही सा
सौ बार तार तार किया तो भी अब तलक
आशिक़ का जहाँ में घर न देखा
मस्तों का दिल है शीशा और संग-दिल है साक़ी
दौरा है जब से बज़्म में तेरी शराब का