कभू बीमार सुन कर वो अयादत को तो आता था
हमें अपने भले होने से वो आज़ार बेहतर था
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मैं जितना ढूँढता हूँ उस को उतना ही नहीं पाता
ने शिकवा-मंद दिल से न अज़-दस्त-दीदा हूँ
कोई बतलाता नहीं आलम में उस के घर की राह
हक़ रखे उस को सलामत हिन्द में
ज़ुल्फ़ों की नागनी तो तिरी हम ने केलियाँ
देखना उस की तजल्ली का जिसे मंज़ूर है
सब मुख़ालिफ़ जब किनारे हो गए
खुल गई जिस की आँख मिस्ल-ए-हबाब
रिश्ता-ए-उमर-दराज़ अपना मैं कोताह करूँ
सौ बार तार तार किया तो भी अब तलक
समझते हम नहीं जो तुम इशारों बीच कहते हो
मज्लिस में रात गिर्या-ए-मस्ताँ था तुझ बग़ैर