समझते हम नहीं जो तुम इशारों बीच कहते हो
मुफ़स्सल को तो हम जाने हैं ये मुज्मल ख़ुदा जाने
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साक़ी मुझे ख़ुमार सताए है ला शराब
तुम्हारी देख सज ऐ तंग-पोशो
एक तो तिरी दौलत था ही दिल ये सौदाई
अजब अहवाल देखा इस ज़माने के अमीरों का
गुल की और बुलबुल की सोहबत को चमन का शाना है
नज़र में उस की जो चढ़ता है सो जीता नहीं बचता
इश्क़ ने चुटकी सी ली फिर आ के मेरी जाँ के बीच
चाँद से तुझ को जो दे निस्बत सो बे-इंसाफ़ है
न कुछ सितम से तिरे आह आह करता हूँ
दौरा है जब से बज़्म में तेरी शराब का
फ़ानूस तन में देख ले रौशन हैं जूँ चराग़
रखे है शीशा मिरा संग साथ रब्त-ए-क़दीम