नज़र में उस की जो चढ़ता है सो जीता नहीं बचता
हमारा साँवला उस शहर के गोरों में काला है
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इश्क़ में पास-ए-जाँ नहीं है दुरुस्त
जब वो आली-दिमाग़ हँसता है
स्वाद-ए-ख़ाल के नुक़्ते की ख़ूबी
रात दिन यार बग़ल में हो तो घर बेहतर है
हम सीं मस्तों को बस है तेरी निगाह
तू ने ग़ारत किया घर बैठे घर इक आलम का
जी तरसता है यार की ख़ातिर
पगड़ी अपनी यहाँ सँभाल चलो
न मैं ने कुछ कहा तुझ से न तू ने मुझ से कुछ पूछा
तिरी जो ज़ुल्फ़ का आया ख़याल आँखों में
न कुछ सितम से तिरे आह आह करता हूँ
दिल-ए-सद-चाक मिरा राह यहाँ कब पाए