न मैं ने कुछ कहा तुझ से न तू ने मुझ से कुछ पूछा
यूँही दिन रात मिलते मुझ को तुझ को मेरी जाँ गुज़रा
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पगड़ी अपनी यहाँ सँभाल चलो
मेरी फ़रियाद कोई नईं सुनता
वक़्त फ़ुर्सत दे तो मिल बैठें कहीं बाहम दो दम
अहल-ए-म'अनी जुज़ न बूझेगा कोई इस रम्ज़ को
मुझे तावीज़ लिख दो ख़ून-ए-आहू से कि ऐ स्यानो
मज़हर-ए-हक़ कब नज़र आता है इन शैख़ों के तईं
एक बोसा माँगता है तुम से 'हातिम' सा गदा
हम सीं मस्तों को बस है तेरी निगाह
नमाज़ियों ने तुझ अबरू को देख मस्जिद में
तू जो मूसा हो तो उस का हर तरफ़ दीदार है
तिरी जो ज़ुल्फ़ का आया ख़याल आँखों में
ये मसला शैख़ से पूछो हम इस झगड़े से फ़ारिग़ है