अहल-ए-म'अनी जुज़ न बूझेगा कोई इस रम्ज़ को
हम ने पाया है ख़ुदा को सूरत-ए-इंसाँ के बीच
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हमारी अक़्ल-ए-बे-तदबीर पर तदबीर हँसती है
इश्क़ नहीं कोई नहंग है यारो
तू जो मूसा हो तो उस का हर तरफ़ दीदार है
अज़ल से दिल है सज्दा में तिरे अबरू के मस्जिद में
इस ज़माने में न हो क्यूँकर हमारा दिल उदास
रिआयत बूझ तू माशूक़ का जौर
होवे वो शोख़-चश्म अगर मुझ से चार चश्म
असीरों का नहीं कुछ शोर-ओ-ग़ुल ये आज ज़िंदाँ में
ज़ाहिद को हम ने देख ख़राबात में कहा
क्या बड़ा ऐब है इस जामा-ए-उर्यानी में
हाथ आता नहीं बग़ैर नसीब
जिस को देखा सो यहाँ दुश्मन-ए-जाँ है अपना