हाथ आता नहीं बग़ैर नसीब
पाँव फैला के सो हुआ सो हुआ
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मशरब में तो दुरुस्त ख़राबातियों के है
तिरी निगह से गए खुल किवाड़ छाती के
हो रहा है अब्र और करता है वो जानाना रक़्स
नज़र से जब अकस्ता है मिरा दिल
मिला दिए ख़ाक में ख़ुदा ने पलक के लगते ही शाह लाखों
ऐ ख़िरद-मंदो मुबारक हो तुम्हें फ़र्ज़ानगी
ब-तंग आया हूँ इस जाहिल के हाथों इस क़दर 'हातिम'
ख़ुम-ख़ाना मय-कशों ने किया इस क़दर तही
साहिबान-ए-क़स्र को मिलती नहीं है ब'अद-ए-मर्ग
जो कोई कि यार-ओ-आश्ना है
ये मसला शैख़ से पूछो हम इस झगड़े से फ़ारिग़ है
कभू जो शैख़ दिखाऊँ मैं अपने बुत के तईं