हाथ में देख कर तिरे मरहम
मेरे सीने का दाग़ हँसता है
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तबीबों की तवज्जोह से मरज़ होने लगा दूना
दर-ओ-दीवार-ए-चमन आज हैं ख़ूँ से लबरेज़
इस क़दर बस-कि रोज़ मिलने से
हुस्न आईना फ़ाश करता है
ऐसी हवा बही कि है चारों तरफ़ फ़साद
नज़र में बंद करे है तू एक आलम को
जो मय-ख़ाने में जाता था क़दम रखते झिझकता था
ख़ुम-ख़ाना मय-कशों ने किया इस क़दर तही
तुम्हारे इश्क़ में हम नंग-ओ-नाम भूल गए
तिरी भुवाँ की तेग़ जब आई नज़र मुझे
दिल उस की तार-ए-ज़ुल्फ़ के बल में उलझ गया
साहिबान-ए-क़स्र को मिलती नहीं है ब'अद-ए-मर्ग