हुस्न आईना फ़ाश करता है
ऐसे दुश्मन को संगसार करो
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इश्क़-बाज़ी बुल-हवस बाज़ी न जान
कुन के कहने में जो हुआ सो हुआ
हो रहा है अब्र और करता है वो जानाना रक़्स
तुम कि बैठे हुए इक आफ़त हो
तिरी जो ज़ुल्फ़ का आया ख़याल आँखों में
मुहय्या सब है अब अस्बाब-ए-होली
अनल-हक़ की हक़ीक़त को जो हो मंसूर सो जाने
हमें याद आवती हैं बातें उस गुल-रू की रह रह के
इश्क़ है दारुश्शिफ़ा और दर्द है उस का तबीब
आब-ए-हयात जा के किसू ने पिया तो क्या
ऐ मुसलमानो बड़ा काफ़िर है वो
तू देख उसे सब जा आँखों के उठा पर्दे