इलाही तुझ से अब कहता है 'हातिम' इस ज़माने में
शरम रखना भरम रखना धरम रखना करम रखना
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चला जाता था 'हातिम' आज कुछ वाही-तबाही सा
दे के दिल उस के हाथ अपने हाथ
शहर में फिरता है वो मय-ख़्वार मस्त
मैं कुफ़्र ओ दीं से गुज़र कर हुआ हूँ ला-मज़हब
कब ये दिल ओ दिमाग़ है मिन्नत-ए-शम्अ खींचिए
न कुछ सितम से तिरे आह आह करता हूँ
मज़रा-ए-दुनिया में दाना है तो डर कर हाथ डाल
ज़ाहिदो उठ जाओ मज्लिस से कि आज
तू अपने मन का मनका फेर ज़ाहिद वर्ना क्या हासिल
औक़ात-ए-शैख़ गो कि सुजूद ओ क़याम है
जा भिड़ाता है हमेशा मुझे ख़ूँ-ख़्वारों से
खेल सब छोड़ खेल अपना खेल