अनल-हक़ की हक़ीक़त को जो हो मंसूर सो जाने
कि उस को आसमाँ चढ़ने से चढ़ना दार बेहतर था
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'हातिम' उस ज़ालिम के अबरू को न छेड़
आब-ए-हयात जा के किसू ने पिया तो क्या
ने काबा की हवस न हवा-ए-कुनिश्त है
हाथ आता नहीं बग़ैर नसीब
रोना वही जो ख़ौफ़-ए-इलाही से रोइए
किसू मशरब में और मज़हब में
मुद्दत हुई पलक से पलक आश्ना नहीं
कशिश से दिल की उस अबरू-कमाँ को हम रखा बहला
जो मिरे हम-अस्र हम-सोहबत थे सो सब मर गए
इन दिनों हम से जो वहशी की तरह भड़को हो
दिल था बग़ल में मुद्दई ख़ूब हुआ जो ग़म हुआ