असीरों का नहीं कुछ शोर-ओ-ग़ुल ये आज ज़िंदाँ में
मिरे दीवाना-पन को देख कर ज़ंजीर हँसती है
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क्या हुआ गर शैख़ यारो हाजी-उल-हरमैन है
ज़ाहिद को हम ने देख ख़राबात में कहा
मुहय्या सब है अब अस्बाब-ए-होली
ज़र्फ़ टूटा तो वस्ल होता है
इश्क़-बाज़ी बुल-हवस बाज़ी न जान
'हातिम' उस ज़ुल्फ़ की तरफ़ मत देख
मुद्दत से ख़्वाब में भी नहीं नींद का ख़याल
सौ बार तार तार किया तो भी अब तलक
नमाज़ियों ने तुझ अबरू को देख मस्जिद में
फड़कूँ तो सर फटे है न फड़कूँ तो जी घटे
गली में उस की न देखा कभू किसी को मगर
मज्लिस में रात गिर्या-ए-मस्ताँ था तुझ बग़ैर