मज्लिस में रात गिर्या-ए-मस्ताँ था तुझ बग़ैर
साग़र भरा शराब का चश्म-ए-पुर-आब था
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मालूम है किसू को कि वो आज शोला-ख़ू
मेरी फ़रियाद कोई नईं सुनता
इस क़दर की सर्फ़ तस्ख़ीर-ए-परी-रूयाँ में उम्र
नासूर की सिफ़त है न होगा कभू वो बंद
एहसान तिरा दिल मिरा क्या याद करेगा
इस दौर के असर का जो पूछो बयाँ नहीं
जी तरसता है यार की ख़ातिर
छल-बल उस की निगाह का मत पूछ
आब-ए-हयात जा के किसू ने पिया तो क्या
चला जाता था 'हातिम' आज कुछ वाही-तबाही सा
साहिबान-ए-क़स्र को मिलती नहीं है ब'अद-ए-मर्ग