मैं उस की चश्म से ऐसा गिरा हूँ
मिरे रोने पे हँसता है मिरा दिल
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तू ने ग़ारत किया घर बैठे घर इक आलम का
कभू तू रो तो उस को ख़ाक ऊपर जा के ऐ लैला
कोई है सुर्ख़-पोश कोई ज़र्द-पोश है
इस दौर के असर का जो पूछो बयाँ नहीं
जब पुकारे है वो अबे ओ होत
तिरे रुख़्सार से बे-तरह लिपटी जाए है ज़ालिम
ऐ ख़िरद-मंदो मुबारक हो तुम्हें फ़र्ज़ानगी
तुम्हारे इश्क़ में हम नंग-ओ-नाम भूल गए
राह में ग़म-ज़दा-ए-इश्क़ को क्या टोको हो
गज़क की इस क़दर ऐ मस्त तुझ को क्या शिताबी है
तबीबों की तवज्जोह से मरज़ होने लगा दूना
वस्फ़ अँखियों का लिखा हम ने गुल-ए-बादाम पर