तिरे रुख़्सार से बे-तरह लिपटी जाए है ज़ालिम
जो कुछ कहिए तो बल खा उलझती है ज़ुल्फ़ बे-ढंगी
Anwar Masood
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Habib Jalib
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Faiz Ahmad Faiz
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Allama Iqbal
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इश्क़ ने चुटकी सी ली फिर आ के मेरी जाँ के बीच
देखा किसी ने हम से ज़माने ने क्या किया
रात उस की महफ़िल में सर से जल के पाँव तक
सच अगर पूछो तो ना-पैदा है यक-रू आश्ना
तुम्हारे इश्क़ में हम नंग-ओ-नाम भूल गए
जब तक कि गरेबान में यक तार रहेगा
इश्क़ के शहर की कुछ आब-ओ-हवा और ही है
गर भला मानस है तो ख़ंदों से तू मिल मिल न हँस
असीरों का नहीं कुछ शोर-ओ-ग़ुल ये आज ज़िंदाँ में
मशरब में तो दुरुस्त ख़राबातियों के है
इलाही तुझ से अब कहता है 'हातिम' इस ज़माने में
चाँद से तुझ को जो दे निस्बत सो बे-इंसाफ़ है