रात उस की महफ़िल में सर से जल के पाँव तक
शम्अ की पिघल चर्बी उस्तुखाँ निकल आई
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हाथ में देख कर तिरे मरहम
एक मुद्दत से तलबगार हूँ किन का इन का
मैं अपने दस्त पर शब ख़्वाब में देखा कि अख़गर था
एक तो तिरी दौलत था ही दिल ये सौदाई
जब से तुम्हारी आँखें आलम को भाइयाँ हैं
दर्द-ए-दिल मेरी आह से पूछो
जो मिरे हम-अस्र हम-सोहबत थे सो सब मर गए
कहीं वो सूरत-ए-ख़ूबाँ हुआ है
फ़िल-हक़ीक़त कोई नहीं मरता
बाज़ार से आए हाथ ख़ाली
मस्तों का दिल है शीशा और संग-दिल है साक़ी
असीरों का नहीं कुछ शोर-ओ-ग़ुल ये आज ज़िंदाँ में