मशरब में तो दुरुस्त ख़राबातियों के है
मज़हब में ज़ाहिदों के नहीं गर रवा शराब
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एक बोसा माँगता है तुम से 'हातिम' सा गदा
आशिक़ों के सैर करने का जहाँ ही और है
आब-ए-हयात जा के किसू ने पिया तो क्या
शम्अ हर शाम तेरे रोने पर
ख़ुम-ख़ाना मय-कशों ने किया इस क़दर तही
ज़ोर यारो आज हम ने फ़तह की जंग-ए-फ़लक
मुल्क-ए-अदम से दहर के मातम-कदे के बीच
इश्क़ में पास-ए-जाँ नहीं है दुरुस्त
स्वाद-ए-ख़ाल के नुक़्ते की ख़ूबी
दौरा है जब से बज़्म में तेरी शराब का
कलेजा मुँह को आया और नफ़स करने लगा तंगी
तिरी मेहराब में अबरू की ये ख़ाल