शम्अ हर शाम तेरे रोने पर
सुब्ह-दम तक चराग़ हँसता है
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इस क़दर बस-कि रोज़ मिलने से
ऐसी हवा बही कि है चारों तरफ़ फ़साद
इस दौर के असर का जो पूछो बयाँ नहीं
बदन पर कुछ मिरे ज़ाहिर नहीं और दिल में सोज़िश है
ज़ाहिदो उठ जाओ मज्लिस से कि आज
नासेह बग़ल में आ कर दुश्मन हुआ हमारा
एहसान तिरा दिल मिरा क्या याद करेगा
राह में ग़म-ज़दा-ए-इश्क़ को क्या टोको हो
हर गुल उस बाग़ का नज़रों में दहाँ है गोया
तेरे आगे ले चुका ख़ुसरव लब-ए-शीरीं से काम
क़ुर्बान सौ तरह से किया तुझ पर आप को
कहो तो किस तरह आवे वहाँ नींद